सबसे ऊँचा प्रेमवाद
प्यारो !
कितनी भी भयंकर से भयंकरतम प्रतिकूल परिस्थिति में भी केवल और केवल अपने प्यारे जै जै का ही निरन्तर सप्रेम स्मरण करते रहें .. सत्य सत्य कहता हूँ – आपके देखते देखते अनन्त चमत्कार हो जायेंगे ..
तथापि मेरा सुस्पष्ट मत है कि चमत्कारों आदि से प्रभावित होकर किया गया भगवत्स्मरण – कहीं न कहीं स्वार्थ की दुर्गन्ध से युक्त है ।
इस विराट में यदि सर्वोत्तम कोई तत्त्व है तो वह है एकमात्र प्रेमतत्त्व … जिसको शास्त्रीय भाषा में निष्काम भक्ति कहा गया है । ये जो प्रेम है ना – इसी के वशीभूत होकर वैदिक विशुद्ध श्री सत्य सनातन धर्म के मूल आधार – “वेद” भी रूप धारण करके हमारे व्रज की रज में लोटपोट होकर इसी अत्यद्भुत्तम तत्व – प्रेम की याचना करते रहते हैं । प्रत्येक कल्प में इन्हीं वेदों को प्रकट करने वाले जगत्पिता भगवान् श्री ब्रह्मा जी भी व्रजरज में लोटपोट होकर प्रेम की याचना करते हैं ।
देवाधिदेव भगवान् श्री महादेव , मूल आद्या सनातनी शक्ति भगवती माता , आदिपूज्य भगवान् श्री गणपति गजानन , जगदात्मा स्वयं भगवान् श्री सूर्य और भगवान् श्री मन्नारायण – ये पञ्चायतन व इनके अंश/अंशांशादि समस्त दैवीय शक्तियाँ -वस्तुतः प्रेमतत्त्व के ही अधीन हैं ।
समस्त अद्वैत आदि वादों का मूल साधन व साध्य – प्रेम ही है । प्रेम है तो सब है , प्रेम बिना कहीं कुछ नहीं है । प्रेम ही मूलतः परब्रह्म है , प्रेम ही समस्त प्राणियों का आधार है , प्रेम के ही वशीभूत समस्त शंकराचार्य प्रभृति आचार्य होते हैं , प्रेम के कारण वेदादि समस्त शास्त्र जीवन्त हैं , प्रेम के ही वशीभूत होकर श्री धर्मसम्राट महाभाग प्रभृति अनेकानेक विद्वान व्रजरज में लोटपोट इस अद्वितीय/अनिर्वचनीय/अनुपम/अनुभवैकगम्य/सारभूत मूलतत्त्व/रसरूप/भावरूप/आनन्दरूप – प्रेम की याचना करके स्वयं को धन्य मानते हैं ..
केवलाद्वैत आदि समस्त सिद्धान्तों की धज्जियाँ उड़ाकर रख दी थी व्रज की अत्यन्त साधारण गोपियों ने । जो श्री उद्धव जी महाराज साक्षात् देवगुरु श्री बृहस्पति जी के शिष्य हैं और साक्षात् भगवान् श्री कृष्ण के रूप हैं – वे मात्र ३ दिवसों में इन व्रजजनों को ब्रह्मज्ञानी बनाने आये थे , ततः ६ माह रुके और प्रेमी बनकर वापिस गये और आज भी लता-पता रूप से श्री कुसुम सरोवर में विराजमान हैं ।
आप लोग ऐसा न सोचें कि ये द्वैत/अद्वैत/द्वैताद्वैत/विशिष्टाद्वैत/अचिन्त्य भेदाभेद/शुद्धाद्वैत आदि वाद मात्र विवादार्थ अथवा निरर्थक हैं । स्व-स्वस्थाने सबकी आवश्यकता व मान्यता है , सबके आधार शास्त्र ही हैं किन्तु इन समस्त सिद्धान्तों से परे है – प्रेमतत्त्व । भक्ति के समस्त आचार्यगण भी इस प्रेमतत्त्व के समक्ष नतमस्तक हो जाते हैं , समस्त वेदादि सच्छास्त्र विस्मित हो उठते हैं इस प्रेमतत्त्व के समक्ष ।
इस प्रेमतत्त्व के अधिष्ठाता देव हैं – प्यारे भगवान् श्री कृष्ण और वे श्री कृष्ण जिनके श्री चरणों में सदैव विराजमान होकर उनकी एक कृपाकटाक्षमात्र के अभिलाषी रहते हैं – वे हैं इस प्रेमतत्त्व कि मूल अधिष्ठात्री , हमारे व्रज की अलबेली सरकार श्री राधारानी । जिनकी साक्षात् चरणरज व्रज में है और इसीलिये वह व्रजरज समस्त सनातनियों की आराध्या है । ये व्रजरज प्रेमप्रदात्री है । आपके इष्टदेव/इष्टदेवी कोई भी हों – ये व्रजरज सबको प्रत्यक्ष करने में सहज सामर्थ्यवान है । इसीलिये बड़े बड़े देवर्षि/ब्रह्मर्षि/राजर्षि/अमलात्मा/विमलात्मा/सन्त/महापुरुष/तपस्वी आदि सनातनी सदैव इस व्रजरज को अपने मस्तक पर व अपने हृदय में धारणकर प्रेमतत्त्व की याचना करते रहते हैं ।
ज्ञान बजाई डुगडुगी , प्रेम बजायौ ढोल ।
ऊधौ सूधौ है गयौ , सुन गोपिन के बोल ।।
समस्त ज्ञान/वैराग्य आदि साधन/साधनायें आदि इसी प्रेमतत्त्व के अधीन हैं । ये प्रेम साधन व साध्य दोनों ही है । अतः जब भी कभी अपने इष्टदेव/इष्टदेवी से याचना करनी हो तो इसी प्रेमतत्त्व की याचना कीजियेगा ..,. ये मूल का भी मूल है , आधारों का भी आधार है , समस्त सिद्धान्तों का सारभूत तत्त्व है ….
।। जय जय श्री राधे ।।
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