कथावाचको हेतु निर्देश
कतिपय अतिविशेषतम बातें हैं । ध्यान दीजिये और सभी का ध्यान आकर्षित करवाइये :-
१ – हमारे जीवन के साथ साथ कथा के भी मूललक्ष्य केवल और केवल प्यारे जै जै ही हों ।
२ – शास्त्रों के व्याख्यान से पूर्व शास्त्रों की मर्यादाओं को जानें/मानें/जीवन में सदाचरण में लाकर अनुभव करें ।
३ – धन व सम्मान के लोभ से कथादिक ना करें ।
४ – स्त्रियों/ब्राह्मणेतरों और ब्राह्मण में भी अनधिकारियों को कथावाचन नहीं करना चाहिये । (कीर्तन/सत्संग की बात भिन्न है )
५ – कथा में संगीत आटा में रामरस(नमक) की भाँति रखें , अति न करें , फूहड़ ग्राम्यगीतों का सर्वथा निषेध करें । अल्लाह/मौला आदि न चिल्लायें ।
६ – झाँकियाँ न ही बनायें , अथवा रखें तो बहुत विशेष मर्यादा का स्मरण रखें । श्री वामन नारायण भगवान् अथवा भक्त श्री सुदामा जी महाराज को भिक्षुक न बनायें , झाँकियों के साथ सेल्फी न लें , भगवदीय मर्यादाओं का ध्यान रखें व पालन करें ।
७ – साथ वाले कर्मकाण्डी विप्रदेवों का सम्मान करें , वे कथावाचक से नीचे नहीं होते । कथाओं में विद्वज्जनों का सम्मान अवश्य करें , उन्हें प्रोत्साहित करें , योग्य का सम्मान अवश्य हो व हृदय से हो । अपना आसन स्वयं बिछायें – साथ वाले विप्रदेव धन से विवश हो सकते हैं , आपके सेवक नहीं । (शिष्य अथवा अत्यधिक विशेष श्रद्धालु हैं तो भिन्न बात है) ।
८ – अल्पतम व्याकरण का अध्ययन अवश्य करें , श्लोक शुद्ध उच्चारण करें , मर्यादित व सुन्दर व्याख्या करें , स्वयं भी शब्दार्थ/भावार्थ/मूलार्थ/गूढ़ार्थ/रसार्थ आदि पर चिन्तनशील रहें । शास्त्रों का अध्ययन करते रहें – श्री गुरुचरणों के आश्रय से ।
९ – माताओं बहनों से यथासम्भव दूरी बनायें कथाओं में । बहन आदि सम्बोधन ही करें । यहाँ दूरी का अर्थ है कि हास्यादि न करें । आपका ऐकान्तिक चरित्र ही आपका सर्वोत्तम प्रमाण है । अधिक से अधिक अपने इष्टदेव/इष्टदेवी के चिन्तन में समय लगायें ।
१० – व्यासपीठ को भिक्षापात्र न बनायें , ये मांगने का नहीं अपितु देने का स्थान है । ना मांगें न ही मांगने की भूमिका बनाने वाला साथ में रखें , न किसी अन्य को मांगने दें । तथापि मांगना अति आवश्यक प्रतीत हो तो व्यासपीठ से उतरकर , प्रणाम करके तब मांगें ।श्री नन्द महोत्सव व श्री रुक्मिणी विवाह आदि पर चढ़ावे की कामना न रखें । व्यासपूजन के नाम पर भी धन के लोभ से दूर रहें ।
यद्यपि जब मैं “बालशुक” गोपेश जी महाराज था , तब परतन्त्र था , तब मुझसे धन को लेकर अनेक अपराध बने हैं (जिनको लेकर मैं सदैव क्षमाप्रार्थी रहूँगा) – तथापि जब अब मैं स्वतन्त्र हूँ तब मैं मर्यादाओं का पालन कर रहा हूँ और स्वयं जीवन में सदाचरण में लाने के पश्चात् ही लिख रहा हूँ 🙏🏻 अतएव मुझे सम्पूर्ण विश्वास है कि यदि मेरी हृदय से यह भावना है कि सबका मङ्गल हो तब ये मेरी हृदय की बातें सभी के हृदय तक अवश्य पहुँचेंगी ।
११ – कथाओं में अवतारवाद/श्राद्ध आदि / मूर्तिपूजा/धर्मसेवा व धर्मरक्षा/ पुराणों के रहस्य सरलरूप से / जन्मना वर्णव्यवस्था आदि आदि विषयों पर अवश्य अवश्य बोलें । केवल नाचना , गाना ही कथा नहीं है । कथाओं में शास्त्रों के रहस्यों को भी श्री गुरुकृपा से प्रकाशित करें । भूगोल खगोल आदि विषयों पर भी चर्चा करें ।
१२ – व्यासपीठ पर मोबाइल लेकर न बैठें , अपनी कथा स्वयं लाइव न करें – ये कथा है , भगवान् की है , अत्यन्त गम्भीर विषय है कोई टीवी शो नहीं है जो दिखाने लग जाते हैं । दिखावे से दूर रहें ।
१३ – आपके लक्ष्य केवल प्यारे प्रभु हैं , अतएव जनता को आकर्षित करने का उद्देश्य न रखें , आपको श्रृंगार की कोई आवश्यकता नहीं , पाखण्डी न बनें , अपने प्यारे जै जै को चमकाईये , स्वयं चमकने से क्या ? आकर्षण आपकी वाणी में हो और वाणी में तभी होगा जब हृदय निर्मल हो और उस निर्मल हृदय में प्यारे प्राणधन प्रभु विराजे हों ।
१४ – यदि कोई भाव किन्हीं अन्य कथावाचक/सन्त से श्रवण किया है तो उनका नाम लें , अपनी छाप न लगायें – अन्यथा इससे कपटवृद्धि होगी , जनता की वाहवाही के चक्कर में आपका अपना नाश होगा …अन्य कथावाचकों की प्रशंसा में कृपणता न करें । किसी को अपना प्रतियोगी न समझें । हम सब केवल और केवल अपने प्यारे जै जै के , अपने प्यारे वैदिक विशुद्ध श्री सत्य सनातन धर्म के सेवक हैं । सेवक ही रक्षक बन सकता है अतएव प्रथम हम धर्मसेवक हैं फिर धर्मरक्षक ।
१५ – कथाओं में अप्रामाणिक बात न बोलें , शास्त्रप्रमाणित बात ही मान्य होती है व होनी चाहिये । टीवी शो आदि का बहिष्कार करें । कार्टून आदि से भी सभी को सावधान करें । कथा में अधिक से अधिक संस्कृतनिष्ठ हिन्दी बोलें । आवश्यकता न हो तो उर्दू आदि म्लेच्छभाषा का प्रयोग न करें ।
१६ – प्रत्येक मान्य सम्प्रदाय/वाद/परम्परा का सम्मान कीजिये । अपना पक्ष रखते समय भगवदीय भेद न करें । पुराणों की शैली को समझें , पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर कथा न करें । एकान्त में भले ही अपने अनुसार समझायें किन्तु व्यासपीठ से सार्वजनिक शास्त्रमर्यादाओं को ध्यान में रखकर ही वक्तव्य दें । व्यासपीठ एकमात्र आपके सम्प्रदाय की सीमा में बद्ध नहीं है ।
प्यारो ! कुल मिलाकर बात केवल इतनी है कि केवल और केवल प्यारे जै जै को ही अपने जीवन में सर्वकाल/सर्वत्र और सर्वविध – सर्वोपरि रखिये । उनसे ही प्रारम्भ , उनसे ही मध्य व उनसे ही अन्त हो । वे हैं – तो सबकुक है , वे नहीं – तो कहीं कुछ नहीं । यदि प्रेम जागृत न हो तो एकान्त में जाकर स्वयं को मारिये , चिल्लाकर करुण पुकार कीजिये – हे प्यारे ! मेरे पाषाण हृदय में अपना प्रेमरस भर दीजिये । अपनी आंखों में मिर्ची डाल लीजिये अकेले में किन्तु लक्ष्य केवल और केवल प्यारे जै जै को ही बनाइये – आपका प्रत्येक अनुष्ठान सफल होगा ।
प्यारे प्रभु सभी का मङ्गल करें , सब आनन्दित रहें , सबकी मनोकामना पूर्ण हो , सब सदा हृदय से मुस्कुराते रहें , निरोग रहें , स्वस्थ हों , दीर्घायु हों । प्यारे जै जै की सर्वत्र/सर्वदा/सर्वविध बरसती हुई अहैतुकी कृपा का जीवन के प्रत्येक पल में । प्रत्येक पग में अनुभव करते रहें …